विपश्यना
सत्यनारायण गोयन्काजी द्वारा सिखायी गयी
साधना
सयाजी ऊ बा खिन की परंपरा मैं
तीसरे दिनका प्रवचन
आर्य अष्टांगिक मार्ग: प्रज्ञा- ज्ञान प्राप्त हुआ, बौद्धिक ज्ञान, अनुभवात्मक ज्ञान - कलापा - चार घटक - तीन लक्षण: अनित्य, अहंकार की भ्रामक प्रकृति, दुःख – दिखाऊ सच्चाइ से वेधन
तीसरा दिन समाप्त हुआ. कल दोपहर आप पन्ना के क्षेत्रमे उतरेंगे,प्रज्ञा - आर्य अष्टांगिक मार्गका तिसरा खंड. प्रज्ञा के बिना, मार्ग अधूरा रहता है.
कोईएक शील के अभ्यास से अपना मार्ग चलना शुरु करता है, याने दूसरों को नुकसान करनेसे दुर रहता है; लेकिन हालांकि कोईएक दूसरों को नुकसान नहीं करता है, फिर अभी भी कोईएक अपने मन में अपवित्रता उत्पन्न करके खुदको हानि पहुँचाता है.जो अपवित्रता उत्पन्न हुई है उसके दमन के लिये मनको नियंत्रित करनेके लिये,कोईएक Samādhi(समाधि) का प्रशिक्षण लेना शुरु करता है. हालांकि, दूषितता को दबाकर उन्हें खत्म नहीं कर सकते. वे बेहोशी में वहाँ पडे रहते है और वृध्दि करते हुए, आप को नुकसान करनेका कारण जारी रखते है. इसलिए धम्म का तीसरा चरण paññā(प्रज्ञा): याने दुषितता को न खुली छूट न ही उन्हें दबाना, लेकिन इसके बजाय उन्हें उत्पन्न होने देना और समाप्त करनेकी अनुमति देता है. जब दुषितता को नष्ट कर रहे हैं, मन विकारों से मुक्त हो जाता है. और जब मन शुद्ध हो जाता है, तो किसी भी प्रयास के बिना ऐसा काम जो दुसरोंको नुकसान पहुंचाता है ऐसे काम से दूर रहता है क्योंकि शुध्द मन का मुल स्वभाव दुसरोंके प्रति सद्भावना और करुणासे भरा हुआ रहता है. ऐसेही, किसी भी प्रयास के बिना एक खुद को नुकसान करनेवाले काम से दुर रखता है. एक सुखी, स्वस्थ जीवन जीता है. इस प्रकार मार्ग का प्रत्येक चरण आपको आगे ले जाता है. Sīla(शील) आपको सही एकाग्रता Samādhi(समाधि)के विकास तक ले जाता है; Samādhi(समाधि) जो मनको शुध्द करता है ऐसेpaññā(प्रज्ञा) को विकसित करता है; paññā(प्रज्ञा) जो सभी विकरोंसे मुक्ति, संपूर्ण ज्ञान याने nibbāna(निब्बाण) तक ले जाता है.
paññā(प्रज्ञा)के अंतर्गत आर्य अष्टांगिक मार्गके दो अधिक भाग आते है.
(7) Sammā-saṅkappa सम्मा-संकल्प - सही विचार. ज्ञान को बढानेको शुरू करने से पहले,पूरे विचार प्रक्रिया को बंद कर देना आवश्यक नहीं है. विचार रहते हैं, लेकिन सोच के स्वरुप मे परिवर्तन आता है. श्वसन की सजगता का अभ्यास की वजह से मन के उपरी स्तर के विकार नष्ट होना शुरु होता है. राग,द्वेष, और मोह के विचारों के बजाय, एक स्वस्थ विचार, धम्म का विचार, अपने मुक्ति के मार्ग के बारे में विचार करना शुरू होता है.
(8) Sammā-diṭṭhi सम्मा-दिठ्ठी - सही समझदारी. यह असली paññā पन्ना(प्रज्ञा) है, सच्चाई को जैसे है वैसे ही समझना,जैसे प्रतित हो रही है वैसे नही.
वहाँ paññā(प्रज्ञा) ज्ञान की के विकास में तीन चरण हैं.पहले suta-mayā paññā(श्रृतमय प्रज्ञा) है,सुनवाई या किसी अन्य के शब्दों को पढ़ने द्वारा मिला हुआ ज्ञान है. यह प्राप्त ज्ञान उचित दिशा देने में किसिको भी बहुत उपयोगी है. हालांकि, यह आप को मुक्त नहीं कर सकता, क्योंकि वास्तव में यह पढापढाया ज्ञान है. एक डर के मारे, शायद अंधा विश्वास से,या न माननेसे नरक मे जानेके डर से, या शायद माननेसे स्वर्ग मे जानेके लालसा के मारे इस सच्चाई का स्विकार करता है. लेकिन किसी भी वस्तुस्थिती में, यह किसका भी अपना ज्ञान नहीं है.
मिला हुआ ज्ञानका कार्य अगले चरण तक ले जाना हैः cintā-mayā paññā(चिंतनमय प्रज्ञा), बौद्धिक समझ. तर्क से कोइएक क्या सुना या पढ़ा है इसे जॉचता है , देखता है कि क्या यह तार्किक, व्यावहारिक, फायदेमंद है; यदि ऐसा है, तो ही इसे स्वीकार करता है. यह तर्कसंगत समझदारी भी महत्वपूर्ण है, लेकिन अगर यह एक अंत के रूप में माना जाता है तो यह बहुत ही खतरनाक हो सकता है. कोइ अपना बौद्धिक ज्ञान विकसित करता है,इसलिए वह एक बहुत बुद्धिमान व्यक्ति है ऐसा निर्णय करता है.जो सब हुछ सिखा है उससे वह केवल अपने अहंकारको बढावा देनेका ही काम करता है; वह अब भी मुक्ति से दूर है.
बौद्धिक समझ के समुचित कार्य अगले चरण के लिए आगे बढना है; bhāvanā-mayā paññā(भावनामय प्रज्ञा), अपने अनुभवके आधार पर अपने भितर विकसित हुआ ज्ञान. यह वास्तविक ज्ञान है. अगर अगले कदम उठाने के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन जिससे मिलता है ऐसा ज्ञान और बौद्धिक समझ बहुत उपयोगी होते हैं. हालांकि, यह केवल अनुभवात्मक ज्ञान ही मुक्ति दे सकती है, क्योंकि खुदके अनुभव के आधार पर यह अपना ज्ञान है.
तीन प्रकार के ज्ञान का एक उदाहरण: एक डॉक्टर एक बीमार आदमी को चिकित्सा का पर्चा देता है.आदमी घर लौटता है, और अपने डॉक्टर में महान विश्वास के वजहसे, वह हर दिन पर्चे पाठ करता है; यह है suta-mayā paññā(श्रृतमय प्रज्ञा). इसीसे संतुष्ट न होकर, आदमी डॉक्टर के पास वापस आता है, और मांग करता है और पर्चेका स्प्ष्टीकरण प्राप्त करता है कि यह क्यो जरुरी है और यह कैसे काम करेगा; यह है cintā-mayā paññā(चिंतनमय प्रज्ञा). अंत में आदमी दवा लेता है; उसके बाद ही उसके इस रोग का निर्मूलन होता है. लाभ केवल तीसरे कदम, bhāvanā-mayā paññā(भावनामय प्रज्ञा) से आता है.
आप दवा खुद लेने के लिए, अपने खुद के ज्ञान को विकसित करने के लिए इस शिविर मे आये हो. ऐसा करने के लिए, आपको अनुभवात्मक स्तर पर सच को समझना चाहिए.भ्रम इतना रहता है, क्योंकि जिस तरह से वस्तुस्थिती दिखाई देती हैं वह वास्तविकता से पूरी तरह से अलग है.इस भ्रम को दूर करने के लिए, आपको अनुभवात्मक ज्ञान विकसित करना होगा. और शरीर के ढांचे के बाहर, सत्य को अनुभव नहीं किया जा सकता; यह केवल बुध्दिजीवी होगी. इसलिए आप को, स्थूल से सूक्ष्मतम स्तर तक अपने भीतर की सच्चाई का अनुभव करके, सभी भ्रम, सभी बंधनों से उभरने के लिए अपनी क्षमता विकसित करनी होगी.
हर कोई जानता है कि पूरे ब्रह्मांड लगातार बदल रहा है, लेकिन इस सच्चाई को बौद्धिक स्तरपर समझनेसे मदद नहीं होगी; किसिको भी अपने आप के भीतर यह अनुभव करना चाहिए. शायद एक दर्दनाक घटना,जैसे की पास या प्रिय किसी की मौत हो जाए,तो वह नश्वरता के तथ्य का सामना करने के लिए मजबूर होता है और ज्ञान को विकसित करता है. यह जानता है प्रपंच के प्रयास और दूसरों के साथ झगड़ा करने की निरर्थकता कितनी है.लेकिन जल्द ही अहंकार की पुरानी आदत पुनर्स्थापित होती है, और ज्ञान क्षीण होता है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित नहीं था.उसको अपने भीतर की नश्वरता की सच्चाई का अनुभव नहीं है.
सब कुछ क्षणभंगूर है हर पल उत्पन्न होता है और नष्ट होता है-- aniccā (अनिच्च); लेकिन ये प्रक्रिया इतने तेजीसे और निरंतर होनेसे टिकावू होनेका भ्रम पैदा करती है. एक मोमबत्ती की लौ और एक बिजली के लैंप की रोशनी लगातार बदलते रहती हैं. एक को अगर होश आकर बदलनेकी प्रक्रिया को खोज निकाले, जैसे मोमबत्ती के लै मे संभव है, तो एक भ्रम से उभर सकता है. लेकिन जब,जैसे बिजली की रोशनी के मामले में, परिवर्तन इतनी तेजी से और निरंतर होता है कि किसी को यह अनुभुती का पता नही लगता, तो भ्रम के बाहर आना मुश्किल होता है. एक बहती नदी में लगातार परिवर्तन का पता लगाने के लिए सक्षम हो सकता है, लेकिन कैसे समझे की जो आदमी नदी मे नहा रहा वह भी हर पल बदल रहा है?
अपने भीतर का पता लगाने के लिए शरीर स्कंध और चित्तस्कंध की सच्चाई का अनुभव करने सिखना,यह इस भ्रम से बाहर आनेका एक ही रास्ता है. सिध्दार्थ गौतम ने बुध्द बननेके लिये यह ही किया. पुर्वग्रह बाजुमे रखकर, शरीरस्कंध और चित्तस्कंध के सत्य प्रकृती का शोध करनेके लिये खुद को जॉचा. उपरी उपरी भासमान सच्चाईसे शुरु करके,उन्होने ढुंढ लिया कि पुरा शरीरस्कंध,पुरा भौतिक विश्व सुक्ष्म परमाणुसे बना है जिसे पाली भाषामे कहा जाता है attha Kalāpa(अष्टकलापा ).उन्होने यह भी ढुंढा कि प्रत्येक सुक्ष्म परमाणू मे चार मुलतत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायू उनके उप-पुरक स्वभावविषेश के साथ मौजूद है-. उन्होने देखा कि यह कण घन पदार्थ बननेके लिये आधारभूत है,और बडी शिघ्रतासे वे उत्पन्न होते है और नष्ट होते है—एक सेकंद मे एक करोड खरब बार. सच्चाई तो यह है की भौतिक विश्व मे कुछ भी ठोस नही है; यह तो सिर्फ ज्वलन और कंपन है.
आधुनिक विज्ञानिकोने बुध्दकी खोजकी पुष्टी कि है,और प्रयोगाद्वारे सिध्द किया है कि पुरा भौतिक विश्व छोटे छोटे परमाणुसे बना है जो शीघ्र गतीसे उत्पन्न होते है और नष्ट होते है.तथापि, यह वैज्ञानिक सभी दुःखोसे मुक्त नही हो पाए, क्यो कि उनका ज्ञान बौध्दिक स्तर पर ही था. बुध्द जैसे,उन्होने अपने भितर के सच्चाई का सीधा अनुभव नही किया था.जब कोईभी खुदके नश्वरतेके सच्चाई का अनुभव करता है,उसके बादही वह अपने दुःखोसे बाहर आना शुरु करता है.
जैसे ही aniccā(अनिच्च) की समझदारी अपनेमे विकसित होती है,ज्ञान का दुसरा पहलू उभर आता हैः anattā(अनत्ता),“मै” नही हू, “मेरा” नही है.शरीर और मनके चित्तस्कंधमे कुछ भी एक क्षण से जादा देर टिकता नही,जिसको कोई पहचान सके ऐसा न बदलनेवाला, मै या अंतरात्मा है ही नही. अगर असलमे “मेरा” जैसा कुछ है,तो किसीका उसपर अधिकार होना चाहिये,उसपे नियंत्रण होना चाहिये, लेकीन असलमे किसीका भी अपने शरीर पर स्वामित्व नही है, अपने इच्छा विपरित वह बदलते रहती है,उसका नाश हो रहा है.
तब ज्ञान का तीसरा पहलू विकसित होता है: dukkha पीड़ा. अगर कोई जो कुछ अपने नियंत्रण के बाहर बदल रहा है उसीको प्राप्त करके पकड मे रखने की कोशिश करता है, तो वह अपने आप के लिए दुख पैदा करता है. आमतौर पर, अप्रिय संवेदना के अनुभव से दुःख को पहचानते है, लेकिन सुखद संवेदना भी,अगर किसको उन से लगाव होता है समान रूप से दुःख का कारण हो सकती है, क्योंकि वे समान रूप से अनित्य हैं.जो क्षणभंगुर है उसके प्रति आसक्ति रखना निश्चित ही दुःख पैदा करती है.
जब aniccā(अनिच्च), anattā(अनत्ता),और dukkha(दुख)की समझ मजबूत होगी, यह ज्ञान एक के दैनंदिन जीवन में प्रकट होगा. कोईएक भीतर प्रत्यक्ष सच्चाई को वेधन करना सिखते है वैसेही बाह्य परिस्थितियों में तब कोई भी एक भासमान सत्य और अंतिम सत्य को देखने के लिए सक्षम हो जाते है. एक भ्रम से बाहर आता है और सुख पूर्वक, स्वस्थ जीवन जीता है.
कई भ्रम भासमान, एकत्रित, एकीकृत सच्चाई द्वारा बनाई गई हैं - उदाहरण के लिए, शारीरिक सौंदर्य का भ्रम. केवल जब तक एकीकृत है तबतक शरीर सुंदर प्रतीत होता है. इसके किसी भी हिस्से को अलग से देखा, बिना आकर्षण,बिना सौंदर्य- asubha(अशुभ)है. शारीरिक सौंदर्य उपरी उपरी, भासमान सच्चाई, मगर परम सत्य नही है.
हालांकि, शारीरिक सुंदरता की भ्रामक प्रकृति को समझने से दूसरों के प्रति नफरत के तरफ नही ले जाएगी. ज्ञान आ जाता है, स्वाभाविक रूप से मन संतुलित, अनासक्त, शुद्ध, सभी के प्रति सदिच्छा पूर्ण हो जाता है.अपने भीतर के सच्चाई के अनुभव के बाद, एक भ्रम,आसक्ति(राग), और द्वेष से बाहर आ सकते हैं, और शांति और सुख से जी सकते हैं.
कल दोपहर, आप paññā (प्रज्ञा)के क्षेत्र में अपना पहला कदम रखेंगे जब आप विपश्यना का अभ्यास शुरू करेंगे.जैसे ही आप शुरू करेंगे आपको सभी सुक्ष्म अणुओंको पूरे शरीर में उत्पन्न होने और नष्ट होते हुए देखेंगे ऐसी उम्मीद मत किजिये. कोइ एक स्थूल, भासमान सच्चाई से शुरु करता है, और समता रखकर धीरे-धीरे सुक्ष्म सच्चाई का,मन और शरीरके अंतिम सत्य का,मानसिक खंड और आखिर मे जो शरीर और मन के परे की अंतिम सत्य का वेधन करता है.
इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, खुदको काम करना चाहिए. इसलिए sīla(शील) मजबूत रखे, क्योंकि यह आपके ध्यान की आधारशीला है, और कल दोपहरके 3 बजेतक आनापान का अभ्यास जारी रखे;और नासिका के क्षेत्र की सच्चाई को देखते रहे. अपने मनको तीक्ष्ण बनाते रहे ताकि जब आप कल विपश्यना शुरु करेंगे,तब गहरे स्तर पर जा सकोगे और वहाँ छिपे हुए दुषितताका उन्मूलन कर सकोगे. अपनी भलाई के लिए, अपने खुद के मुक्ति के लिए धीरज से,दृढता से, निरंतर काम करे.
आप सब लोग मुक्ति की राह पर पहला कदम उठाने में सफल रहे.
सबका मंगल हो!