२९ अगस्त, २००० को संयुक्त राष्ट्र संघ के जनरल एसेंब्ली हॉल में सहस्राब्दि विश्व शांति संमेलन के प्रतिनिधियों के सामने आचार्य गोयन्काजी द्वारा दिये गये प्रवचन का हिंदी अनुवाद
विश्व शांति के लिए आंतरिक शांति आवश्यक
तारिखः ऑगस्ट २९, २०००२९ अगस्त, २००० को संयुक्त राष्ट्र संघ के जनरल एसेंब्ली हॉल में सहस्राब्दि विश्व शांति संमेलन के प्रतिनिधियों के सामने आचार्य गोयन्काजी द्वारा दिये गये प्रवचन का हिंदी अनुवाद
मित्रो, आध्यात्मिक एवं धार्मिक जगत के नेताओ!
आज हम सबको एकत्र होकर मानवता की सेवा करने का एक उत्तम अवसर उपलब्ध हुआ है। धर्म एकता लाए तो ही धर्म है। यदि फूट डालता है, तो वह धर्म नहीं है।
आज यहा कन्वर्जन के पक्ष में एवं विपक्ष में बहुत चर्चा हुई। मैं कन्वर्जन के पक्ष में हूं, विरोध में नहीं। लेकिन एक संप्रदाय से दूसरे संप्रदाय में नहीं, बल्कि कन्वर्जन दुःख से सुख में, बंधन से मुक्ति में, क्रूरता से करुणा में होना चाहिए। आज ऐसे ही परिवर्तन की आवश्यकता है और इसी के लिए इस महासभा में प्रयास करना है।
पुरातन भारत ने विश्व की समग्र मानवता को शांति एवं सामंजस्य का संदेश दिया। पर केवल इतना ही नहीं। शांति एवं सामंजस्य प्राप्त करने का तरिका भी दिया, विधि भी दी। मुझे ऐसा लगता है कि मानव समाज में यदि सचमुच शांति स्थापित करनी है, तो हमें हर एक व्यक्ति को महत्व देना होगा। अगर प्रत्येक व्यक्ति के मन में शांति नहीं है तो विश्व में वास्तविक शांति कैसे होगी? यदि मेरा मन व्याकुल है, हमेशा क्रोध, वैर, दुर्भावना एवं द्वेष से भरा रहता है, तो मैं विश्व को शांति कैसे प्रदान कर सकता हूं? ऐसा कर ही नहीं सकता क्यों कि स्वयं मुझमें शांति नहीं है। इसलिए संतों एवं प्रबुद्धों ने कहा है, “शांति अपने भीतर खोजो।” स्वयं अपने भीतर निरिक्षण करके देखना है कि क्या सचमुच मुझमें शांति है। विश्व के सभी संतो, सत्पुरुषों एवं मुनियों ने यहीं सलाह दी — अपने आप को जानो। माने केवल बुद्धि के स्तर पर नहीं, भावावेश में आकर या श्रद्धा के मारे स्वीकार मत कर लेना, बल्कि जब अपनी अनुभूति के स्तर पर अपने बारे में सच्चाई को जानेंगे तब जीवन की समस्याओं का स्वतः समाधान होता चला जायगा।
ऐसा होने पर व्यक्ति सर्वव्यापी निसर्ग के नियम को, कुदरत के कानून को या यूं कहे ईश्वर की इच्छा को समझने लगता है। यह कानून सब पर लागू होता है। यदि मैं अपने भीतर निरिक्षण करूं तो देखूंगा कि जैसे ही मन में कोई मैल जागता है, शरीर में उसका प्रतिक्रिया अनुभूत होने लगती है। शरीर गरम हो जाता है, जलने लगता है, धड़कन बढ़ जाती है, तनाव मालूम होता है। मैं व्याकूल हो जाता हूं। भीतर मैल जगाकर तनाव पैदा करता हूं तो अपनी व्याकुलता केवल अपने तक ही सीमित नहीं रखता। उसे औरों को भी बांटता हूं। अपने आस-पास के वातावरण को इतना तनावपूर्ण बना देता हूं कि जो मेरे संपर्क में आता है वही व्याकुल हो जाता है। मैं चाहे कितनी ही सुख-शांति की बाते करूं, मेरे भीतर क्या हो रहा है, यह शब्दों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। और यदि मेरा मन निर्मल है तो कुदरत का दूसरा कानून काम करने लगता है। जैसे ही मेरा मन निर्मल हुआ, यह कुदरत या ईश्वर मुझे पुरस्कार या देने लगता है। मुझे शांति का अनुभव होता है। इसे मैं अपने भीतर स्वयं देख सकता हूं।
कोई चाहे, किसी भी संप्रदाय का, परंपरा का, देश का हो जब वह कुदरत के कानून को तोड़ कर मन में मैल जगाता है तो दुःखी होता ही है। कुदरत स्वयं दंड देती है। कुदरत के कानून को तोड़ने वाला तात्काल नारकिय यातना का अनुभव करता है। इस समय नारकीय दुःख का बीज बो रहे हैं, तो मृत्यु के पश्चात भी नारकिय दुःख ही मिलेगा। वैसे ही, अगर मैं मन को शुद्ध रखूं, मैत्री एवं करुणा से भरूं तो अब भी अपने भीतर स्वर्गीय सुख भोगता हूं और यह बीज मरने के बाद भी स्वर्गीय सुख ही लायेगा। मैं अपने आपको चाहे हिंदू कहूं, इसाई, मुस्लिम, बौद्ध, जैन कुछ भी कहूं कोई फर्क नहीं पड़ता। मनुष्य मनुष्य है, मनुष्य का मानस मनुष्य का मानस है।
अतः कन्वर्जन होना ही चाहिए — मन की अशुद्धता का, मन की शुद्धता में। यह कन्वर्जन लोगों में आश्चर्यकारक बदलाव लायेगा। यह कोई जादू या चमत्कार नहीं, बल्कि अपने भीतर शरीर एवं चित्त के पारस्पारिक संस्पर्श को ठीक से जानने का परिणाम है, जो एक विशुद्ध विज्ञान है। कोई भी अभ्यास करने पर समझ सकता है कि मन किस प्रकार शरीर को प्रभावित करता है और शरीर किस प्रकार मन को प्रभावित करता है। बड़े धीरज के साथ जब इसका निरिक्षण करते जाते हैं तो कुदरत का कानून बड़ा स्पष्ट होता जाता है कि जब भी हम चित्त में मैल जगाते हैं, दुःखी होते है और जैसे ही चित्त मैल से विमुक्त हो जाता है, शांति-सुख का अनुभव करने लगते हैं। आत्म निरीक्षण की इस विधि का अभ्यास कोई भी कर सकता है।
प्राचीन काल में भगवान बुद्ध द्वारा सिखाई गई यह विद्या विश्वभर में फैली। आज भी विभिन्न वर्गों के, संप्रदायों के लोग आकर इस विद्या को सीखते हैं और वही लाभ प्राप्त करते हैं। वे अपने आपको हिंदू, मुसलमान, बौद्ध, इसाई कहते रहें, इन नामों से कोई फर्क नहीं पड़ता। मनुष्य मनुष्य है, फर्क इसी बात से होगा कि वे अभ्यास द्वारा वास्तव में धार्मिक बनें, मैत्री एवं करुणा से परिपूर्ण हो जायँ। उनके कर्म स्वयं अपने लिए एवं औरों के लिए अच्छे हो जायँ। जब कोई व्यक्ति अपने भीतर शांति जगाता है, तो उसके आसपास का सारा वातावरण शांति की तरंगों से भर उठता है। उसके संपर्क में जो भी आता है वही शांति अनुभव करता है। यह मानसिक परिवर्तन ही सही परिवर्तन है, सही कन्वर्जन है। आवश्यकता इसी बात की है। अन्यथा सभी बाह्य परिवर्तन निरर्थक हैं।
वैश्विक शांतीके लिए मनःशांती
“हमें केवल अपने धर्म (संप्रदाय) को सम्मान देकर दूसरे संप्रदायों की निंदा नहीं करनी चाहिए।” आज इस संदेश का बहुत बड़ा महत्त्व है। दूसरे संप्रदाय की निंदा करके अपने संप्रदाय की सर्वोत्तमता सिद्ध करते हुए व्यक्ति मानवता के लिए बहुत बड़ी कठिनाई पैदा करता है। फिर अशोक कहता है, “इसके बजाय नाना कारणों से दूसरे संप्रदायों का सम्मान करना चाहिए।” हर संप्रदाय का सार मैत्री, करुणा एवं सद्भावना है। इस सार को समझते हुए हमें हर धर्म का सम्मान करना चाहिए। छिलके हमेशा भिन्न होते हैं—तरह तरह के रीति-रिवाज, कर्मकांड, अनुष्ठान, धारणाएं होंगी। उन सबको लेकर झगड़ने के बजाय उनके भीतर के सार को महत्त्व देना चाहिए। अशोक के अनुसार, “ऐसा करके हम अपने ही धर्म (संप्रदाय) को बढ़ावा देते हैं और दूसरे धर्मों की भी सेवा करते हैं। इसके विपरीत व्यवहार करके हम अपने संप्रदाय की भी हानि करते हैं और दूसर संप्रदाय को भी हानि पहुँचाते हैं।”
यह संदेश हम सबको गंभीर चेतावनी देता है कि जो कोई व्यक्ति अपने संप्रदाय के प्रति अति श्रद्धा के मारे दूसरे संप्रदाय की निंदा करते हुए यह सोचता है कि ऐसा करके मैं अपने संप्रदाय की शान बढ़ाऊंगा, वह अपने कृत्यों से अपने ही संप्रदाय की हानि करता है।
अंत में अशोक सर्वव्यापी धर्मनियामता का संदेश प्रस्तुत करता है। “आपस में मिलकर रहना अच्छा है। झगड़ा नहीं करना चाहिए। दूसरों संप्रदायों के जो उपदेश है उसे सभी सुनें एवं सुनने के लिए उत्सुक भी हों।”
अस्वीकार करने एवं निंदा करने के बजाय, हम हर संप्रदाय के सार को महत्त्व दें तभी समाज वास्तविक शांति एवं सौमनस्य स्थापित होगा।
सब का मंगल हो।
अहिंसाः धर्मकी परिभाषाकी चाभी
दो संप्रदायोंमे फर्क होना स्वाभाविक है. फिर भी, इस विश्वशांती शिखरमे जमा होनेसे मुख्य विचारधाराके नेताओने शांतीकेलिये काम करनेकी इच्छा जताई है. पहले शांती बादमे, पहला तत्व वैश्विक धर्मका. चले हम साथमे घोषित करे की हम हत्यासे विरत रहेंगे, हिंसाकी निंदा करेंगे. युद्ध या शांतीमे मुख्य भूमिका निभानेवाले राजकिय प्रमुख व्यक्तिभी इसमे सामिल हो. वे इनमे शामिल हो या न हो कमसे कम यहा और अभी स्विकार करे कीः हिंसा और हत्येको क्षमा करनेके बदले, जब धर्मके नामपर हिंसा होती है तब हम ऐसे कर्मकी निंदा करते है ऐसा घोषित करे.
कुछ आध्यात्मिक नेताओंमे अपने धार्मिकश्रध्दाओंके नामपर होनेवाली हिंसापर निंदा करनेकी दुरदर्शिता और साहस होता ही है. की गयी हिंसा और हत्याके लिये क्षमा और खेद व्यक्त करनेका धर्मशास्त्र और तत्वज्ञान अवलोकनका तरिका अलग हो सकता है, फिर भी पहले किये हुए हिंसाकी स्विकृती संकेत देती है की वह कृत्य गलत था और भविष्यमे इसको क्षमा नही होगी.
संयुक्त राष्ट्रसंघके छत के नीचे हम धर्म और अध्यात्मकी ओर अहिंसाको अधोरेखीत करनेवाली परिभाषा तयार करनेका प्रयत्न करे, और हत्या करनेको उत्तेजन नही दे. किसी भी धर्मकी परिभाषामे शांती को न होना मानवसमाजके लिये बडा दुर्भाग्यपूर्ण है. यह शिखर परिषद "वैश्विक धर्म" या "संप्रदायरहित अध्यात्म" इस संकल्पनाको दृढ करनेकेलिये संयुक्त राष्ट्रसंघके आगे रखे.
धर्मके वास्तविक उद्देशपर विश्वका ध्यान केंद्रित करनेकेलिये यह शिखर परिषद मदद करेगी इसकी हमे निश्चिंती है.
धर्म हमारेमे एकता लाती है
अलग नही बनाती; वह हमे शांती और सहृदयता सिखाती है.
इस शिखर परिषदका आयोजन करनेवालोंको हम उनकी दूरदृष्टी और प्रयत्नके लिये अभिनंदन करते है. हम धार्मिक और आध्यात्मिक नेताओंको धन्यवाद देते है, जिनकी परिपक्वता मिलजुलके काम करना और धर्म और अध्यात्मिकता मानवसमाजको शांततापूर्ण भविष्यके तरफ ले जानेकी आशा दिखाते है.
सभी लोग द्वेषसे मुक्त हो और सुखी हो.
शांती और एकता प्रबल हो.